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Rig Veda Mandala 4.doc
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      1. Hymn 52

परति षया सूनरी जनी वयुछन्ती परि सवसुः | दिवो अदर्शि दुहिता || अश्वेव चित्रारुषी माता गवाम रतावरी | सखाभूद अश्विनोर उषाः || उत सखास्य अश्विनोर उत माता गवाम असि | उतोषो वस्व ईशिषे || यावयद्द्वेषसं तवा चिकित्वित सून्र्तावरि | परति सतोमैर अभुत्स्महि || परति भद्रा अद्र्क्षत गवां सर्गा न रश्मयः | ओषा अप्रा उरु जरयः || आपप्रुषी विभावरि वय आवर जयोतिषा तमः | उषो अनु सवधाम अव || आ दयां तनोषि रश्मिभिर आन्तरिक्षम उरु परियम | उषः शुक्रेण शोचिषा ||

      1. Hymn 53

तद देवस्य सवितुर वार्यम महद वर्णीमहे असुरस्य परचेतसः | छर्दिर येन दाशुषे यछति तमना तन नो महां उद अयान देवो अक्तुभिः || दिवो धर्ता भुवनस्य परजापतिः पिशङगं दरापिम परति मुञ्चते कविः | विचक्षणः परथयन्न आप्र्णन्न उर्व अजीजनत सविता सुम्नम उक्थ्यम || आप्रा रजांसि दिव्यानि पार्थिवा शलोकं देवः कर्णुते सवाय धर्मणे | पर बाहू अस्राक सविता सवीमनि निवेशयन परसुवन्न अक्तुभिर जगत || अदाभ्यो भुवनानि परचाकशद वरतानि देवः सविताभि रक्षते | परास्राग बाहू भुवनस्य परजाभ्यो धर्तव्रतो महो अज्मस्य राजति || तरिर अन्तरिक्षं सविता महित्वना तरी रजांसि परिभुस तरीणि रोचना | तिस्रो दिवः पर्थिवीस तिस्र इन्वति तरिभिर वरतैर अभि नो रक्षति तमना || बर्हत्सुम्नः परसवीता निवेशनो जगत सथातुर उभयस्य यो वशी | स नो देवः सविता शर्म यछत्व अस्मे कषयाय तरिवरूथम अंहसः || आगन देव रतुभिर वर्धतु कषयं दधातु नः सविता सुप्रजाम इषम | स नः कषपाभिर अहभिश च जिन्वतु परजावन्तं रयिम अस्मे सम इन्वतु ||

      1. Hymn 54

अभूद देवः सविता वन्द्यो नु न इदानीम अह्न उपवाच्यो नर्भिः | वि यो रत्ना भजति मानवेभ्यः शरेष्ठं नो अत्र दरविणं यथा दधत || देवेभ्यो हि परथमं यज्ञियेभ्यो ऽमर्तत्वं सुवसि भागम उत्तमम | आद इद दामानं सवितर वय ्र्णुषे ऽनूचीना जीविता मानुषेभ्यः || अचित्ती यच चक्र्मा दैव्ये जने दीनैर दक्षैः परभूती पूरुषत्वता | देवेषु च सवितर मानुषेषु च तवं नो अत्र सुवताद अनागसः || न परमिये सवितुर दैव्यस्य तद यथा विश्वम भुवनं धारयिष्यति | यत पर्थिव्या वरिमन्न आ सवङगुरिर वर्ष्मन दिवः सुवति सत्यम अस्य तत || इन्द्रज्येष्ठान बर्हद्भ्यः पर्वतेभ्यः कषयां एभ्यः सुवसि पस्त्यावतः | यथा-यथा पतयन्तो वियेमिर एवैव तस्थुः सवितः सवाय ते || ये ते तरिर अहन सवितः सवासो दिवे-दिवे सौभगम आसुवन्ति | इन्द्रो दयावाप्र्थिवी सिन्धुर अद्भिर आदित्यैर नो अदितिः शर्म यंसत ||

      1. Hymn 55

को वस तराता वसवः को वरूता दयावाभूमी अदिते तरासीथां नः | सहीयसो वरुण मित्र मर्तात को वो ऽधवरे वरिवो धाति देवाः || पर ये धामानि पूर्व्याण्य अर्चान वि यद उछान वियोतारो अमूराः | विधातारो वि ते दधुर अजस्रा रतधीतयो रुरुचन्त दस्माः || पर पस्त्याम अदितिं सिन्धुम अर्कैः सवस्तिम ईळे सख्याय देवीम | उभे यथा नो अहनी निपात उषासानक्ता करताम अदब्धे || वय अर्यमा वरुणश चेति पन्थाम इषस पतिः सुवितं गातुम अग्निः | इन्द्राविष्णू नर्वद उ षु सतवाना शर्म नो यन्तम अमवद वरूथम || आ पर्वतस्य मरुताम अवांसि देवस्य तरातुर अव्रि भगस्य | पात पतिर जन्याद अंहसो नो मित्रो मित्रियाद उत न उरुष्येत || नू रोदसी अहिना बुध्न्येन सतुवीत देवी अप्येभिर इष्टैः | समुद्रं न संचरणे सनिष्यवो घर्मस्वरसो नद्यो अप वरन || देवैर नो देव्य अदितिर नि पातु देवस तराता तरायताम अप्रयुछन | नहि मित्रस्य वरुणस्य धासिम अर्हामसि परमियं सान्व अग्नेः || अग्निर ईशे वसव्यस्याग्निर महः सौभगस्य | तान्य अस्मभ्यं रासते || उषो मघोन्य आ वह सून्र्ते वार्या पुरु | अस्मभ्यं वाजिनीवति || तत सु नः सविता भगो वरुणो मित्रो अर्यमा | इन्द्रो नो राधसा गमत ||

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